हां मैं Anarchist हूं

by Wednesday, January 22, 2014 1 comments

दो दिनों से दिल्ली की सड़कों पर आम आदमी कुछ ख़ास देख रहा है..। जो पुलिस की चौखट से लेकर सरकार के हर दर पर मेमना बनने के लिए मजबूर हैं उनके विद्रोह के नारों में टीवी स्टूडियो के सुपर स्टार दरबारी गायकों सरीखे कर्णप्रिय सुर नहीं खोज पा रहे..। मीडिया के माइकों से भाग्य विधाता पत्रकार जनतंत्र के गीत गाते दिख रहे हैं..। दोनों से ताल्लुक रखने वाला मैं मूक ही रहता लेकिन जब विजय विद्रोही जी को एबीपी न्यूज़ पर डिक्शनरी खोलकर ‘anarchy’ की परिभाषा देते देखा तो रहा नहीं गया..। नाम विद्रोही होने पर भी वो ये नहीं समझ पाए कि इस शब्द के मायने शब्दकोष में नहीं इतिहास में खंगालने की ज़रुरत है..। 6 सदी ईसा पूर्व चीन में TAOISM के जनक लाओत्सु इस थीम के पहले प्रणेता कहलाते हैं..। उनके बाद के इसी लीक के दार्शनिक झुआंगजी ने लिखा, ‘एक छोटा चोर जेल जाता है, बड़ा चोर देश चलाता है..।’ क्या ऐसा नहीं लगता ये एक परिभाषा 65 सालों में पनपी हमारी व्यवस्था के लिए ही कही गई हो..? उस हिसाब से तो जेपी, अरविंद केजरीवाल असल में इस संस्थागत ANARCHY को तोड़ने वाले विरले नेता साबित होते हैं..। Georges Lechartier लिखते हैं- “The true founder of anarchy was Jesus Christ and ... the first anarchist society was that of the apostles.” बोल्शेविक क्रांति शायद ANARCHISTS के बिना कभी मुमकिन नहीं होती..। एक बार फिर हमारे हालात की याद आती है जब आप ये जानते हैं कि ANARCHIST शब्द का इस्तेमाल भर्त्सना के तौर पर पहली बार 1642 में अंग्रेज़ी गृहयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के रजवाड़ों ने संसद के लिए लड़ रहे ‘ROUNDHEAD’ क्रांतिकारियों के लिए किया था..। अफसोस ये है कि इस बार भी इतिहास खुद को सिर्फ दोहराता दिख रहा है..जबकि हमारे देश में पहली ज़रुरत इसे रचे जाने की है..। लेकिन सवाल ये है कि इस बदलाव उम्मीद किससे रखें..? जिन्हें अरबों की फीस पर काम करने वाली प्रचार कंपनियां..सजीले मंचों पर मसीहा का मुखौटा पहनाकर पेश करती हैं..उनका इतिहास कमज़ोर है और वर्तमान संदेहास्पद..। मीडिया के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना अच्छा..। आज सुबह धरनास्थल पर शौचालय खोज रहे केजरीवाल के मुंह में मीडिया ने माइक ठूंसा तो वो बोले, मीडिया को क्या हो गया है, ज़्यादातर पत्रकार अच्छे हैं, लेकिन उनके मालिक बीजेपी या कांग्रेस के हाथों बिके हैं..। सबने बयान चलाया लेकिन बेहद सफाई से मालिक वाली बात काटकर..। इतनी सी बात ही उसके समाज की आत्मा के रक्षक, 'CONSCIENCE KEEPER OF SOCIETY' होने के दावे की पोल खोलती है..। दो-तीन दिन पहले सीएनएन-आईबीएन और एनडीटीवी केजरीवाल का इंटरव्यू ले उड़े और एबीपी को नहीं मिला..। इसके बाद आप केजरीवाल के लिए इस चैनल के बदले सुर देख सकते हैं..। TIMES NOW की भी यही कहानी है..। आप जो टीवी पर देखते हैं, सुनते हैं..उसे बोलने, लिखने वाले भी उसी मिडल क्लास का हिस्सा हैं, जिसकी स्वार्थपरता पर दुनिया भर के समाजशास्त्री आपको एकमत मिलेंगे..।

मैंने सुना है अंधों के एक गांव में जब दुर्घटनावश एक आंख वाला फंस गया तो अंत में उसे भी अपनी आंखें निकलवानी पड़ीं..। क्योंकि बाकी सब लोग अगर कोई इकलौता सच देख पाए थे तो वो था अंधकार..। इतने आतातायी देखने के बाद अब इस देश की आत्मा ही शासित हो गई लगती है..। गोरे हों या काले..हुक्मरानों को ‘भाग्य विधाता’ के तौर पर देखने के आदी हो गए हैं हम..। यहां तक कि टैगोर जैसा दिमाग भी जॉर्ज पंचम के बारे में ऐसा ही गीत लिखता है..और हम उसे खुशी-खुशी राष्ट्रगीत भी बना लेते हैं..। कमज़ोर शासकों ने इतनी बार लुटवाया कि हिंदुस्तान की यही शासित आत्मा अब किसी ‘अधिनायक’ के लिए तड़पती जान पड़ती है..। आत्मा की इसी गुलामी से पनपे वो मस्तिष्क भी हैं जो टीवी चैनलों की मोटी सैलेरियों और अपनी अभिप्साओं के गुलाम हैं..। इसीलिए जब केजरीवाल यमदूत जैसे अंगरक्षकों से घिरे नहीं दिखते, जब वो लुटियन्स दिल्ली के खाए अघाए लोगों की करताल के बीच रिबन ना काटकर लोगों के बिजली कनेक्शन जोड़ते दिखते हैं तो गुलाम दिमाग उन्हें नेता ही स्वीकार नहीं कर पाते..। इसीलिए जब वो आम इंसान की तकदीर को फाइलों के जाल से निकालकर फैसलाकुन जंग में ले जाना चाहते हैं तो लोगों को लगता है कि वो प्रशासक नहीं, आंदोलनकारी हैं..। ज़रा सोचकर देखिएगा..आंदोलनकारी ही सच्चे शासक हो सकते हैं..। अन्यथा राजतंत्र को उखाड़ने की क्या ज़रुरत पड़ती..? अन्यथा पढ़ी लिखी ब्यूरोक्रेसी को ही इस देश का शासन क्यों ना सौंप दिया जाता..? अन्यथा दुनिया का मन मोहने वाले अर्थशास्त्री..इस देश में इतना ऐतहासिक अनर्थशास्त्र ना लिखते..। 

अगर एमसीडी की छत पर करीब 500 करोड़ का हैलीपैड सिर्फ मुख्यमंत्री के हैलीकॉप्टर के लिए बनता है तो वो हमारे नेताजी की कार्यकुशलता के लिए ज़रुरी कहलाया जाता है..। लेकिन जिस जनता का सचिवालय है (जिसके मेनगेट को 15 साल बाद जनता के लिए खोलने के लिए एक पूरा दिन लग जाता है!) अगर वो उसके आंगन में घुस आती है तो मेरे प्रबुद्ध मित्र भी कहते हैं लोकतंत्र की गरिमा का हनन हो गया..! एक एसएचओ जब झुग्गियों की औरतों को पीटने से पहले वारंट तो क्या, इंसानियत के तकाज़े को भी ठेंगे पर रखता है, तब आवाज़ भी नहीं उठती..। लेकिन वही एसएचओ जब हर कानून से ज़्यादा हफ्ते की ग्राहकी की फिक्र में मंत्री तक को अनसुना कर देता है तो संविधान के अनुच्छेद, धाराएं, वाक्य, शब्द तक पर ब्रह्मज्ञान देने वाले खड़े हो जाते हैं..। हां, नस्लवाद स्वीकार्य नहीं हो सकता..। लेकिन क्या हम ये स्थिति स्वीकार कर लें जहां दिल्ली ही नहीं देश के हर नागरिक के लिए फैसला करना मुश्किल हो कि वो रक्षकों से ज़्यादा डरे या भक्षकों से..? एक मंत्री का शीशा टूटे तो दर्जन पुलिसवाले सस्पेंड हो जाएं लेकिन एक औरत को ज़िंदा जला दिया जाए..तो संविधान की धाराओं को इंसाफ की राह का रोड़ा बना दिया जाए..?

लोकतंत्र बहुमत पर भले ही चले..लेकिन क्रांतियों को कभी बहुमत की ज़रुरत नहीं पड़ी..। माओ, लेनिन से लेकर कास्त्रो तक इतिहास उठाकर देख लें..बदलाव के बीज सदैव अल्पमत ने ही बोए..। बाज़ारवाद जिस दौर का आधार हो, वहां शायद अल्पमत में रहना, सच की ज़्यादा बड़ी मज़बूरी है..। लेकिन ये देश एक अहम दोराहे पर है..। एक ओर ऐसा विचार है जो कहता है कि मुझे ताकत दो ताकि आपका ‘भाग्य विधाता’ बनूं..। और दूसरी ओर ये ख्याल कि आप तक ताकत पहुंचेगी..ताकि आपका मुस्तकबिल आपके हाथ हो..। मेरे पसंदीदा ब्रेख्त के शब्दों में- “बशर्ते तय करो- किस ओर हो तुम”..!




Madhaw

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1 comment:

  1. बहुत अच्छा लिखा। देश को आन्दोलनकारियों की ज़रुरत तो है। मेरे ख्याल में लोग डरते भी हैं की कहीं यह भी पहले वालों के जैसा निकला तो। ऐसा पहली बार नहीं है की आन्दोलन से निकल कर कोई सरकार बना रहा है – बंगाल में कम्युनिस्ट, महाराष्ट्र में शिवसेना, यहाँ तक की जनता दल जिससे भाजपा निकल कर आई है। लेकिन इन सब का हाल देख के लगता भी है की फिर कोई नयी आशा का किरण ले कर आये और फिर निराशा में झोंक दे इससे अच्छा यह है की जहाँ थे वही ठीक थे। कम से कम वर्तमान में ये संतोष तो है की आशा करने की आशा भी मोदी जैसे व्यक्ति से होती है। केजरीवाल में फर्क यह जरूर है की एक किरण दिखती है जो सत्यता पर आधारित है। और हमारी नयी पीढ़ी ने पहले इतना साहस सड़क पर नहीं देखा। मेरी समझ में सिर्फ एक गड़बड़ी दिखती है और वह ये की उनके अधिकतर ये कहते हुए सुना है की सब चोर हैं, पर इंसान के अन्दर जो अच्छाई है उसको टटोलते बहुत कम देखने को मिलता है। अगर सब चोर हैं और सिर्फ डर पैदा कर के ही इसे रोक जा सकता है - तो बहुत दुःख की बात है। पर मैं ये सोचना ज्यादा पसंद करूंगा की अधिकतर लोग अच्छे हैं और उन्हें सिर्फ माहोल बदलने की ज़रुरत है। अगर हर नुक्कड़ में कचरे का डब्बा हो तो अधिकतर लोग रोड गन्दी करेंगे?

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